मध्यॉंचल के मध्य कालीन महा नायक छत्रसाल

 







 




0 कैलाष मड़बैया     
पद्म श्री से सम्मानित, वरिष्ठ साहित्यकार   

भारत में,मध्यकालीन , देष के उन राष्ट् वीरों को कृतज्ञ देषवासी कभी विस्मृत नहीं कर सकते जिन्होंने विदेषी आताताइयों से अपना राष्ट्-गौरव अक्षुण्य रखने के लिये अहिर्निष संघर्ष किया और  प्राणों की आहुतियंॉं दीं। चाहे वह महाराष्ट् में षिवाजी हों,राजस्थान में महाराणा प्रताप हों,पंजाब में गुरु नानक हों  या देष के हृदय प्रदेष को बचाने वाले महान स्वातंत्र्य प्रणेता बुन्देल केसरी छत्रसाल।  
छत्रसाल विषेष इस मायने में है क्योंकि वह किसी राजा के राजकुॅंअर नहीं थे  उन्हें उत्तराधिकार में राज या सुख-सुविधायें नहीं मिलीं थी,केवल मिले थे पैतिृक शत्रु।  छत्रसाल ने शून्य से यात्रा प्रारंभ कर अपने शौर्य से षिखर-गौरव प्राप्त किया था और अत्यन्त गंभीर विषमताओं में केवल अपनी तलवार से पहली बार समग्र बंुदेलखण्ड की मेंड़ बनाई थी और तब सारा देष कह उठा था-
‘इत जमुना उत नर्मदा, इत चम्बल उत टोंस ।  
 छत्रसाल सें लरन की रही न काहू   होंस  ?’ 
छत्रसाल न केवल अप्रतिम यो़़द्धा थे वरन् वे उच्च कोटि के कवि भी थे। कहने को वे ‘बंुदेल केसरी’ थे पर स्वराज की लड़ाई छत्रसाल ने बंुदेलखण्ड के बाहर देष भर में मालवा, बधेलखण्ड, पंजाब व राजस्थान तक लड़ीं थीं। आल्हा उूदल की अद्भुत शौर्य परम्परा में छत्रसाल अपनी तरह के पहले और अप्रतिम बंुदेला ध्वज वाहक थे। वीरों व हीरों की धरती पर अपनी कलम और करवाल से आग और श्रंगार का इतिहास रचने वाले छत्रसाल महान ने जो यषस्वी शौर्य गाथायें गढ़ी वे बेमिषाल हैं। छत्रसाल का जन्म  ही रणभूमि में तलवारों की खनखनाहट के बीच, ककर कचनये स्थित मोर पहाडि़यों को लॉंघते हुई माता लाल कुॅंअरि के गर्भ से महेबा के पहरुये पिता चम्पतराय के यहॉं ज्येष्ठ शुंक्ल 3,सम्वत् 1706 ;सन् 1649द्ध को,वर्तमान मध्यप्रदेषीय बुंदेलखण्ड में टीकमगढ़ जिले के लिधौरा ब्लॉक के ककर कचनय में हुआ था। पिता बृहद बंुदेलखण्ड राज्य के ओरछा के कस्बे महेबा में सामान्य जागीरदार थे। राज्य की स्थिति तब दयनीय थी-
‘ प्रलय पयोधि उमंग में ल्यों गोकंुल जदुराय, त्यो बूढ़त बंुदेल कुल राख्यौ चम्पतराय’। जब छत्रसाल 12 वर्ष के थे तभी 1661 में उनके पिता और माता को दुष्मनों ने घेरकर आत्माहुति को बाध्य किया था। उस असहाय अवोध निरे बालक की आप कल्पना कीजिये जिसके बचपन में मॉ-बाप नहीं रहे। जिसके पास न धन न सेना, न राज न काज,न संगी न साथी थे,था तो केवल बंुदेला स्वाभिमानी मन और बंुदेला बॉंकपन। इसीलिये वह टूटा नहीं,चुका नहीं,झुका नहीं रुका नहीं चल पड़ा अकेले ही मात्र कुछ जन समर्थन के बल अपने स्वराज प्राप्ति के लक्ष्य पर।
छत्रसाल की मॉं के कुछ गहने एक महाबली नाम के तेली ने रख छोड़े थे जब बालक छत्रसाल को उसने लौटाये तो इनकी ऑंखें डबडबा आई। उन्हें बेचकर छत्रसाल ने पंॉंच घोड़े ,पच्चीस सवार की छोटी सेना निम्न तबके के लोगों की बनाई और चल पड़ा अकेला टिमटिमाता दिया, मुगलों के भारी तूफान से टकराने। उसने सुना था-‘जा कौ बैरी सुख सें जीबै,बाके जीवन खों धिक्कार..’इसलिये छत्रसाल ने पहला आक्रमण बंुदेल भूमि के बाहर मालवा में अपने मॉ-बाप के हंता साहेबसिंह धंधेर पर कर, उन्हें समाप्त किया। फिर सिंरोज के हाषिम खान की धुनाई की और धामौनी,पवाया, मैहर/बधेलखण्ड जीता। ग्वालियर पर आक्रमण कर मुगल सेनापति रणदूल्हा को पराजित कर छत्रसाल ने वीरता का कीर्तिमान गढा।इन युद्धों से करोड़ों की आय हुई ,जिसे छत्रसाल ने अपनी सेना के बॉंकुरों में बॉट दिया परिणाम यह हुआ कि छत्रसाल में लोगों ने अपना कृष्ण देखा और जन समर्थन की होड़ लग गई।1675में महामति पाणनाथ सें भेट हुई तो उन्होंने आषीर्वाद दिया.. ‘छत्ता तोरे राज में धक धक धरती होय,जॉं जॉं घोड़ा मुख करे तॉं तॉं फत्ते होय।’ 1687 में छत्रसाल ने गौंड़ों को हराकर, बंुदेलखण्ड की मूल राजधानी ओरछा से छेड़छाड़ किये बिना, पन्ना को अपनी राजधानी बनाया। 1671 से1680 की कालावधि में छत्रसाल ने चित्रकूट से ग्वलियर व काल्पी तक विजय पताका फहराई और बुंदेलखण्ड की मेंड बनादी...सुद्र्रढ़ सीमारेखा सुरक्षित की।अपने अन्तिम दिनो में अवष्य सन्1727 में कालिंजर के किले में इलाहाबाद के नबाब मोहम्मद बंगस से यु़द्ध में छत्रसाल को वृद्धावस्था में परेषानी का सामना करना पड़ा पर उन्होंने अपनी चतुराई से काम लिया और बाजीराव पेषवा को पूना से मदद को बुलाकर बंगस को पराजित कर कलंक का टीका पौंछ ही लिया । इसके बदले में छत्रसाल ने बाजीराव को बंुदेली राज्य का कुछ हिस्सा व मस्तानी नर्तकी भेंट की। छत्रसाल 82 वर्ष जिये पर संघर्ष ही झेलते रहे।हालॉंकि वे झुके कभी नहीं। 59 वर्ष के अपने राज काल में 58 यु़़द्ध लड़े। छत्रसाल ने नौगॉंव के पास धुवेला ताल के निकट,पौष षुक्ल3संवत1706;दिसम्बर 1731द्ध को अपना शरीर त्याग दिया था।उस समय छत्रसाल ने14करोड़ रु और अगणित हीरा जवाहरातों की सम्पदा खजाने में छोड़ी थी।आज भी छत्रसाल को अवतार की तरह मध्यॉंचल में लोक.देवता जैसा सुमरन किया जाता है-‘‘छत्रसाल महाबलीः करियौ सब भला भली’। दरसल बंुदेलखण्ड में इतिहास लिखा ही नहीे गया और इतर इतिहास ने छत्रसाल के साथ न्याय अब तक नहीं किया।अब प्रणामी अपने प्रणामी चष्मे से और महाराष्ट्यिन अपने मराठी चष्में से देखते हैं।यहॉं तक कि निकटवर्ती ओरछा/.टीकमगढ़ वाले भी उन्हें उचित स्थान देने में यथार्थ से मुॅंह मोड़ते हैं पर छत्रसाल तो थे छत्रसालः बेमिसाल। छत्रसाल इस मामले में भी विषिष्ट हैं कि वे केवल तलवार से नहीं करवाल से भी धनी  थे। उनकी कलम से निःसृत कलाम में कमाल था।इन्होंने अनेक ग्रंथ रचे थे। उनके छत्रसाल विलास ग्रंथ का साहित्य में उल्लेख है। छत्रसाल के साहित्य का सम्पादन वियोगी हरि ने 1726 में ‘छत्रसाल गं्रथावलि’ नाम से किया। कवि होने के साथ वे कवियों का सम्मान भी करते थे। छत्रसाल का महाराष्ट् से आये कवि भूषण की पालकी में कंधा दे अगवानी करना साहित्यिक इतिहास का सर्वश्रेष्ठ उदाहरण है।छत्रसाल की यह काव्य पंक्तियॉं हमे आज भी प्रेरित करतीं हैं-    ‘
 लाख  धटै कुल साख न छॉंडि़ये ,वस्त्र फटै प्रभु औरहु दैहै।
 द्रव्य घटै घटना नहीं कीजिये दैहे न कोउ पै लोक हंसै है।  
भूप छता जल राषि को पैरिबो कौनहुॅ बेर किलारे लगै  है।
  हिम्मत छॉंड़े ते किम्मत जायेगी,जायगौ काल कलंक न जैहै।’
सम्पर्क-‘कैलाष मड़बैया साहित्य सदन’,75 चित्रगुप्त नगर,कोटरा, भोपाल 462003 मो.9826015643