यदि मार्क जकरबर्ग आत्मसाक्षात्कार कर सकते हैं, तो आप क्यों नहीं...?


- डॉ. विजय अग्रवाल 
जीवन प्रबंधन विशेषज्ञ)


एक वक्त ऐसा था, जब फेसबुक खरीदने के लिए लोगों के फोन आते थे... मैं भी परेशान चल रहा था। तब मैं स्टीव जॉब्स के पास गया... उन्होंने कहा, भारत जाओ, तो मंदिर जरूर जाना... मैं वहां गया, और मुझे आगे का रास्ता मिला... देखिए, आज मैं कहां हूं... यह गहरी, पवित्र और निश्छल आत्मस्वीकृति है अमेरिका के नौजवान मार्क ज़करबर्ग की, जो उन्होंने हमारे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के सामने की। तो आइए, आज इसी को लेकर कुछ बातें करते हैं। हम भारतीय ज़करबर्ग की इस बात से थोड़ी देर के लिए खुश होंगे और गर्व का भी अनुभव कर लेंगे, लेकिन कुछ ही समय बाद इसे विनम्रता से भरकर बढ़ा-चढ़ाकर की गई प्रशंसा मानकर भूल भी जाएंगे। हमें यह झूठ लगने लगेगा... क्यों...? क्योंकि हम तो भारत में ही रह रहे हैं, और मंदिर जाने में एक दिन भी ज़ाया नहीं करते। सच तो यह है कि घर में ही मंदिर बना रखा है, लेकिन सालों बीत गए, हम तो अब तक वहीं के वही हैं, बल्कि पीछे ही होते जा रहे हैं। दोस्तों, यहां सवाल यह है कि इन दोनों में से कौन सही है...? आप अपने उत्तर की खोज करें। मेरा उत्तर यह है कि दोनों ही सही हैं। अब यह बात अलग है कि इस सच को कोई कितना पकड़ पाता है। जो जितना पकड़ लेता है, उतना ही आगे निकल जाता है। जो सच को जाने बिना ही उसके साथ लगा रहता है, उसका कुछ नहीं होता। ज़करबर्ग ने इस सच को जान लिया था।
तो इसका सच क्या है...? बड़ा मजेदार और सुंदर सच है इसका। पानी बरसता है। आम के पेड़ पर बरसता है, तो नीम के पेड़ पर भी बरसता है। दोनों पर एक ही गुण वाला पानी बरसता है, एक ही मात्रा में बरसता है। एक ही वक्त पर भी बरसता है। आम और नीम, दोनों एक-दूसरे के पड़ोसी भी हैं, यानी दोनों की मिट्टी एक ही है, और दोनों को हवा और रोशनी भी एक ही मिल रही है। तो फिर क्या कारण है कि आम में जाने वाला पानी मीठा हो जाता है, और नीम में जाने वाला कड़वा। पानी तो दोनों पर एक ही बरसा था, तो फिर स्वाद दो क्यों, और वे भी दोनों एक-दूसरे के इतने विरुद्ध - एक मीठा, दूसरा कड़वा।
दरअसल, हमारे अंदर जो कुछ भी घटित होता है, वह सिर्फ उसके अनुसार नहीं होता, जो हमारे साथ बाहर हो रहा है। वह उसके अनुसार होता है, जो हम अपने अंदर होने देते हैं। यानी हमारे अंदर का मैकेनिज़्म क्या है, कैसा है, और कितना सही है, कितना गलत... रेडियो दृश्य नहीं दिखा सकता, उसके लिए टीवी सेट चाहिए। आम का मैकेनिज़्म पानी को मीठा बना देता है, तो नीम का उसे कड़वा। मार्क ज़करबर्ग का मैकेनिज़्म भारत और भारत के किसी एक मंदिर के एक बार के दर्शन को ग्रहण करके उसे यहां तक पहुंचा देता है, जबकि मंदिर में ही दिन-रात रहने वाले वहां से आगे कहीं नहीं पहुंच पाते।
यहां समस्या न बरसने वाले पानी के साथ है, न मंदिर के साथ। यहां समस्या हमारे साथ है। यानी हम खुद ही अपने लिए सबसे बड़ी समस्या बने हुए हैं, इसलिए यदि हम चाहते है कि हमारे साथ भी कुछ ऐसा ही अच्छा घटित हो, तो हमें अपने ऊपर काम करना पड़ेगा। हमें खुद को ठीक-ठाक करना होगा। नीम की जड़ों में शक्कर डालने से निबौरियां, नीम के पत्ते और इसकी डंठलें तनिक भी मीठी नहीं होंगी। हमारे पूर्वजों ने स्वयं के सुधार की इसी प्रक्रिया को 'आत्मसाक्षात्कार' का नाम देते हुए कहा था - 'स्वयं को जानो...' जब तक खुद को जानोगे नहीं, तब तक समझोगे नहीं, और जब समझोगे ही नहीं, तो फिर सुधारोगे भला क्या...?
प्रकृति ने मनुष्य को चेतना का वह वरदान दिया है, जिसका इस्तेमाल कर वह अपने मैकेनिज़्म को जैसा बनाना चाहे, बना सकता है। आम का पेड़ ऐसा नहीं कर सकता, नीम भी नहीं कर सकता। मार्क ज़करबर्ग ने कर लिया, हम भी कर सकते हैं। वैसे, इस हम में 'आप' भी शामिल हैं।


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