उत्तर लाॅकडाऊन पीरियड़ एक सबक बने


- ललित गर्ग -

अब लाॅकडाऊन आंशिक रूप से उठ गया है, इससे सामान्य जीवन के धीरे-धीरे पटरी पर लौटने में मदद मिलेगी। यही वह क्षण है जिसकी हमें प्रतीक्षा थी और वह सोच है जिसका आह्वान है अभी और इसी क्षण हमें कोरोना महामारी के साथ जीने की संयम, धैर्य एवं मनोबल पूर्ण एवं सावधानीपूर्ण तैयारी करनी होगी। कोरोना लम्बा चलने वाला है और उससे पीड़ितों की संख्या भी चैंकाने वाली होगी, इसलिये असली परीक्षा अब है। हम अपनी जमीं को इतना उर्वर बना ले जिस पर उगने वाला हर फल हम सबके जीवन को रक्षा दे और हर फूल अपनी सौरभ हवा के साथ कोरोना मुक्ति का स्वस्थ परिवेश सब तक पहुंचा दें। महात्मा गांधी के अनुसार कि लोकतन्त्र में सरकार की पहली जिम्मेदारी वंचितों व कमजोर लोगों को आर्थिक से लेकर सामाजिक सुरक्षा देने की होती है।
उत्तर लाॅकडाऊन पीरियड़ एक सबक बने, एक नई जीवनशैली की कार्ययोजना बने। हमें संकल्पित होना होगा एवं आने वाले कल की कार्ययोजना बनानी होगी। जो कार्य पहले प्रारम्भ कर देते हैं और योजना पीछे बनाते हैं, वे परत-दर-परत समस्याओं व कठिनाइयों से घिरे रहते हैं। उनकी मेहनत सार्थक नहीं होती। उनके संसाधन नाकाफी रहते हैं। कमजोर शरीर में जैसे कोरोना व्याधि आसानी से घुस सकती हैं, वैसे ही कमजोर नियोजन और कमजोर व्यवस्था से यह रोग जल्दी कहर बन सकता है। यूं लग रहा है कि हम कोरोना से लड़ तो सकते हैं पर उसे जीने की एवं उसे परास्त करने की हममें तैयारी नहीं है। चिन्तन का विषय यह भी है कि लाॅकडाऊन के दौरान हजारों लोगों की मृत्यु केवल इसकी परेशानियों को झेलते हुए हुई। गंभीर मुद्दा यह भी है कि महामारी के दौर में भी हम चरित्र नहीं बना पाये, मुनाफाखोरी के कई मामले सामने आये। राजनीतिक दल एवं नेता जमकर राजनीति करते हुए दिखाई दे रहे हैं। मगर सन्तोष की बात यह है कि इस दौरान पूरे भारत में भाईचारे और आपसी सहयोग के उद्धरणों ने आंखों में पानी ला दिया और भारत अपनी उन जड़ों से जुड़ा रहा जिसने इसे जीवन जीने के आदर्श मूल्य एवं जीवनशैली दी है।
 अब आगे का रास्ता इसलिए कठिन है क्योंकि राजनीति एवं समाजस्तर पर इस प्रकार के दृश्य आज ऊपर से नीचे तक नजर आते हैं, जहां नियोजन में करुणाशीलता व रचनात्मकता का नितांत अभाव है और लक्ष्य सोपान पर ही लड़खड़ा रहा है। नियमितता तो हमने सीखी ही नहीं और सीखेंगे भी नहीं। आजकल राजनीति परिवेश में एक प्रवृत्ति और चल पड़ी है, कोरोना से जुड़े जीवन-मुद्दों की। कौन-सा मुद्दा जनहित का है, उन्हें कोई मतलब नहीं। कौन-सा स्वहित का है, उससे मतलब है। और दूसरी हवा जो चल पड़ी है, लाॅबी बनाने की, ग्रुप बनाने की। इसमें न संविधान आड़े आता है, न सिद्धांत क्योंकि ”सम विचार“ इतना खुला शब्द है कि उसके भीतर सब कुछ छिप जाता है। जो शक्ति देश व समाज के हित में लगनी चाहिए, वह गलत दिशा में लग रही है। सब कोई सरकार से जनकल्याणकारी योजनाओं की मांग कर रहे हैं, पर खुद जन-कल्याण करते हुए दिखाई नहीं दे रहे हैं। समस्याएं सब गिना रहे हैं, समाधान कोई नहीं बन रहा है। 12 करोड़ लोग बेरोजगार हो चुके हैं और उद्योग-व्यापार ठप्प है। देश में गरीबी की सीमा रेखा से नीचे रहने वालों की संख्या 21.7 प्रतिशत से बढ़ कर 40 प्रतिशत से ऊपर तक होने की संभावनाएं हैं। लेकिन इन दुखद पहलुओं के साथ सुखद भी बहुत कुछ घटा है, कोरी निराशाजनक स्थितियां ही नहीं है। हमने लाॅकडाउन के दौरान संयम एवं सादगी से कम साधन-सुविधाओं में जीना सीखा है। हमारा पर्यावरण साफ-सुथरा हुआ है, सड़क दुर्घटनाएं कम हुई है, खर्चों पर नियंत्रण हुआ है।
भारत इस मायने में सौभाग्यशाली देश कहा जायेगा कि इसके प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी स्वयं जमीन से जुड़े व्यक्तित्व है, उन्होंने खुद कोरोना महासंग्राम का नेतृत्व किया है, अब उनके प्रभावी नेतृत्व में वित्तमन्त्री को बिना कोई समय गंवाये ‘अनलाक इंडिया’ में आर्थिक स्थितियों को तीव्र गति देने की स्कीम तैयार करनी चाहिए और उन गरीबों-जरूरतमंदों-पीड़ितों की दुआएं बटोरनी चाहिएं जिनके वोट से यह सरकार बनी है। यह पता लगाना चाहिए कि सरकार ने अभी तक जो जनकल्याण योजनाओं की घोषणाएं की है, गरीबों के लिये जिस तरह की राहत की योजनाएं बनाई हंै वे वास्तविक रूप में कितने लोगों तक पहुंची है। जनता के स्वास्थ्य, भूख व अन्य दैनिक जरूरतों की आपूर्ति सुनिश्चित करना लोगों द्वारा चुनी गई सरकार का दायित्व होता है।
सत्ताएं एवं शासन व्यवस्थाएं अक्सर सिद्धांत और व्यवस्था के आधारभूत मूल्यों को मटियामेट कर सामाजिक और राजनैतिक स्तर पर कीमत वसूलने की कोशिश करते हैं। सत्य को ढका जाता है या नंगा किया जाता है पर स्वीकारा नहीं जाता। और जो सत्य के दीपक को पीछे रखते हैं वे मार्ग में अपनी ही छाया डालते हैं। राष्ट्र एवं समाज को विनम्र करने का हथियार मुद्दे या लाॅबी नहीं, पद या शोभा नहीं, ईमानदारी है। और यह सब प्राप्त करने के लिए ईमानदारी के साथ सौदा नहीं किया जाना चाहिए, क्योंकि यह भी एक सच्चाई है कि राष्ट्र, सरकार, समाज, संस्था व संविधान ईमानदारी से चलते हैं, न कि झूठे दिखावे, आश्वासन एवं वायदों से। दायित्व और उसकी ईमानदारी से निर्वाह करने की अनभिज्ञता संसार में जितनी क्रूर है, उतनी क्रूर मृत्यु भी नहीं होती। मनुष्य हर स्थिति में मनुष्य रहे। अच्छी स्थिति में मनुष्य मनुष्य रहे और बुरी स्थिति में वह मनुष्य नहीं रहे, यह मनुष्यता नहीं, परिस्थिति की गुलामी है। कोरोना महासंकट की क्रूर एवं जीवन विनाशक स्थितियों के बीच राजनीति एवं शासन व्यवस्थाओं से यह अपेक्षा है कि हमारे कर्णधार पद की श्रेष्ठता और दायित्व की ईमानदारी को व्यक्तिगत अहम् से ऊपर समझने की प्रवृत्ति को विकसित कर मर्यादित व्यवहार करना सीखें। बहुत से लोग काफी समय तक दवा के स्थान पर बीमारी ढोना पसन्द करते हैं पर क्या वे जीते जी नष्ट नहीं हो जाते? खीर को ठण्डा करके खाने की बात समझ में आती है पर बासी होने तक ठण्डी करने का क्या अर्थ रह जाता है? हमें लोगों के विश्वास का उपभोक्ता नहीं अपितु संरक्षक बनना चाहिए। समय की दस्तक सुनते हुए आदर्श संरक्षक की स्थिति के लिये सरकार को भले ही कर्ज लेकर जनकल्याणकारी योजनाएं चलानी पड़े या नये नोट छापने पड़े- उसे ऐसा करना चाहिए, कर्ज लेकर घी पिलाने वाली महाऋषि ‘चरक’ की नीति को अपनाना ही चाहिए, जिन्होंने कहा था कि ‘ऋणं कृत्वा घृतम् पीवेत’ अर्थात संकट के समय यदि कर्ज लेकर भी जिन्दगी जीनी पड़े तो पीछे नहीं हटना चाहिए क्योंकि इसी बोझ से आज को जीने का सामथ्र्य मिल सकेगा, इसी रोशनी से अंधेरे में भी अपना घर ढूंढ़ लेने की सबको दृष्टि मिल सकेगी और चैराहें पर खड़ी पीढ़ियों को इसी से सही दिशा, सही मुकाम मिल सकेगा। इसी से भारत एक नये भारत-आत्मनिर्भर भारत के रूप में अवतरित हो सकेगा।
प्रेषकः
(ललित गर्ग)
लेखक, पत्रकार, स्तंभकार
ई-253, सरस्वती कंुज अपार्टमेंट
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