न्यूयॉर्क टाइम्स से / वैज्ञानिकों का दावा- कोरोना से ठीक होने वाले सभी मरीजों में एंटीबॉडी बनती है, यह बात गलत कि सिर्फ गंभीर मरीजों में ही ऐसा होता है

न्यूयॉर्क टाइम्स से / वैज्ञानिकों का दावा- कोरोना से ठीक होने वाले सभी मरीजों में एंटीबॉडी बनती है, यह बात गलत कि सिर्फ गंभीर मरीजों में ही ऐसा होता है



 




  • माउंट सिनाई के इकाॅन स्कूल ऑफ मेडिसिन के शोधकर्ताओं ने 1343 मरीजों की स्टडी रिपोर्ट में किया खुलासा

  • केवल गंभीर रूप से संक्रमित ही नहीं, हल्के लक्षण और शुरुआती लक्षण वाले मरीजों में भी एंटीबॉडी बनती है

  • अब तक डॉक्टर सिर्फ ठीक हुए गंभीर कोरोना संक्रमित मरीजों को ही प्लाज्मा ट्रीटमेंट के लिए सही मान रहे थे


अपूर्व मंडाविलि. कोरोना महामारी से बचाव का अभी तक जो सबसे ठोस विकल्प दुनिया के सामने आया है, वह प्लाजमा ट्रीटमेंट है। यदि किसी व्यक्ति को एक बार कोरोना हो जाता है और वह इलाज के बाद ठीक हो जाता है, तो उसके रक्त में एंटीबॉडीज (प्रतिरक्षा प्रणाली) विकसित हो जाती है। ऐसे व्यक्ति के ब्लड से प्लाज्मा निकालकर यदि दूसरे कोरोना पेशेंट को दिया जाता है, तो उसके ठीक होने की उम्मीद बनी रहती है। 
हालांकि, वैज्ञानिक अभी यही मान रहे हैं कि प्लाजमा ट्रीटमेंट के लिए केवल वही मरीज उपयुक्त हैं, जो गंभीर रूप से कोरोना संक्रमित हुए हों, क्योंकि हल्के लक्षण और प्रारंभिक लक्षण वाले मरीजों के रक्त में एंटीबॉडी का निर्माण नहीं होता। लेकिन न्यूयॉर्क स्थित माउंट सिनाई के इकाॅन स्कूल ऑफ मेडिसिन के शोधकर्ताओं ने 1343 कोरोना संक्रमित मरीजों के अध्ययन में पाया कि ऐसा बिल्कुल नहीं है। सिर्फ गंभीर रूप से संक्रमित ही नहीं, हल्के लक्षण और प्रारंभिक लक्षण वाले मरीजों में भी एंटीबॉडी का निर्माण होता है। इसलिए प्लाजमा ट्रीटमेंट के लिए इन लोगों के रक्त भी लिए जा सकते हैं।



  • यह अंधकार में उम्मीद की एक किरण की तरह है


इस स्टडी रिपोर्ट को सबमिट करने वाली वायरोलॉजिस्ट फ्लोरियन क्रेमर कहती हैं कि यह अंधकार में उम्मीद की एक किरण की तरह है, क्योंकि कोरोना वैक्सीन कब तक विकसित होगी, इसका किसी के पास कोई जवाब नहीं है। तब तक प्लाज्मा ट्रीटमेंट से कोरोना संक्रमित मरीजों को ठीक किया जा सकता है। इस विधि में उन लोगों का बड़ा योगदान होगा, जिनके शरीर में एंटीबॉडी का विकास हुआ है। बता दें कि इस अध्ययन को क्रेमर की टीम ने मंगलवार (7 मई को) ऑनलाइन पोस्ट किया है, लेकिन अभी तक विशेषज्ञों द्वारा इसकी समीक्षा नहीं की गई है।


जो संक्रमण से उबर चुके, वे काम पर लौट सकते हैं



  • न्यूयॉर्क स्थित कोलंबिया विश्वविद्यालय में वायरोलॉजिस्ट एंजेला रॉस्मुसेन कहती हैं कि अभी तक दुनिया के चिकित्सकों में यह अवधारणा बनी हुई थी कि कोरोना संक्रमित मरीजों में एंटीबॉडी का विकास उम्र, लिंग और संक्रमण की गंभीरता के स्तर पर निर्भर करता है, लेकिन इस रिपोर्ट ने साबित कर दिया है कि ऐसा नहीं है।

  • वास्तव में अधिकांश संक्रमित लोगों में एंटीबॉडी विकसित होती है। एंटीबॉडी और वायरस को बेअसर करने की उनकी क्षमता के बीच बहुत अच्छा संबंध होता है। क्योंकि एंटीबॉडी ही कोरोनावायरस के पैथोजिंस (संक्रमण फैलाने में मुख्य भूमिका निभाने वाला एजेंट) को नष्ट करने में सक्षम होते हैं।

  • अध्ययन में यह भी कहा गया है कि जो कोई भी संक्रमण से उबर चुका है, वह सुरक्षित रूप से काम पर लौट सकता है। हालांकि इसमें यह स्पष्ट नहीं है कि ऐसे लोग कितने दिन तक स्वस्थ रहेंगे। या इनके दोबारा संक्रमित होने की संभावना बनी रहती है या नहीं। 


हल्के और शुरुआती लक्षण वाले मरीज भी दे सकते हैं प्लाज्मा 



  • शोधकर्ताओं की टीम में शामिल डॉ. एनिया वेजनबर्ग के अनुसार इस प्रोजेक्ट रिपोर्ट को बनाने के लिए 15 हजार से अधिक संक्रमित मरीजों को शामिल किया गया। इसमें 3 प्रतिशत कोरोना के गंभीर मरीज थे, जो अस्पताल में एडमिट किए गए थे। शेष केवल हल्के या मध्यम लक्षण वाले थे।

  • टीम ने 624 लोगों के परीक्षण में पाया कि 511 जो गंभीर रूप से संक्रमित थे, 42 हल्के और 71 बेहद ही हल्के संक्रमण वाले मरीज थे। सभी में एंटीबॉडी जरूर विकसित हुए थे। शोधकर्ताओं ने कहा कि एंटीबॉडी के लिए परीक्षण का समय परिणामों को बहुत प्रभावित कर सकता है।

  • डॉ. एनिया वेजनबर्ग कहती हैं कि ‘यदि इस रिपोर्ट को समीक्षा के दौरान मान्यता मिलती है तो ठीक हुए गंभीर ही नहीं, हल्के और प्रारंभिक लक्षण वाले मरीज भी प्लाज्मा ट्रीटमेंट में योगदान दे सकते हैं और दुनिया के लाखों संक्रमित लोगों को ठीक किया जा सकता है।


719 मरीजों पर अध्ययन, 62% में एंटीबॉडी नहीं पाई गई



  • शोधकर्ताओं ने अपने अध्ययन में 719 ऐसे लोगों को शामिल किया, जिन्हें संदेह था कि उन्हें कोविड -19 है, लेकिन उनमें बीमारी के लक्षण नहीं थे। इस समूह में शोधकर्ताओं ने पूरी तरह से एक अलग तस्वीर पाई। इन लोगों में से 62 प्रतिशत रक्त में एंटीबॉडीज विकसित नहीं हुए थे। एंटीबॉडी का पता लगाने के लिए उनकी बीमारी के बाद उनमें से कुछ का परीक्षण भी किया गया।

  • शोधकर्ताओं ने पाया कि कई ने शायद इन्फ्लूएंजा बीमारी को गलती से कोरोना समझा लिया था। डॉ. वाजनबर्ग ने कहा कि "मुझे लगता है कि न्यूयॉर्क में हर कोई सोचता है कि वे कोरोना से ग्रसित थे और ठीक होने के बाद उनके अंदर एंटीबॉडी का विकास हो गया, लेकिन ऐसा बिल्कुल नहीं है।’


क्या वे पहले कोरोना संक्रमित थे अथवा उन्हें इन्फ्लूएंजा था?



  • फ्लोरियन क्रेमर कहती हैं कि जो मरीज हलके या प्रारंभिक लक्षण वाले थे, वे 14 अथवा 28 दिन के बाद दोबारा संक्रमित पाए गए। इससे यह पता चला कि ठीक हुए गंभीर रूप से संक्रमित मरीज के अंदर ही अच्छी तरह से एंटीबॉडी विकसित होती है। लेकिन मेरी स्टडी रिपोर्ट मेंं यह बात स्पष्ट हो चुकी है कि जो लोग कुछ दिन बाद दोबारा संक्रमित हुए।

  • दरअसल वे लोग पहले कोरोना संक्रमित थे ही नहीं। ऐसे मरीज इन्फ्लूएंजा अथवा अन्य बीमारी से संक्रमित थे, जो ठीक हो गए थे और लोगों ने समझा कि ये कोरोना को मात दे चुके हैं, इनके अंदर प्रतिरक्षा प्रणाली विकसित हो गई होगी। अब सवाल ये भी उठ रहा है कि जो लोग दोबारा संक्रमित हो रहे हैं, क्या वे पहले कोरोना संक्रमित थे अथवा उन्हें इन्फ्लूएंजा था?

  • दरअसल, मार्च में अमेरिका समेत दुनिया के कई देशों में कोरोना जांचने के सीमित साधन थे। शुरू में जिनको बुखार या जुखाम हुआ, उन्हें भी कोरोना संक्रमित बताया गया। ऐसे ही लोग बाद में दोबारा संक्रमित हो रहे हैं। जबकि जो लोग कोरोना से वाकई संक्रमित हुए हैं, चाहे वह गंभीर, हल्के और शुरुआती लक्षण वाले ही क्यों न हों, ठीक होने के बाद इनके अंदर एंटीबॉडी जरूर विकसित हुए हैं। 



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