कश्मीर में बदलता आतंकवाद / हिजबुल कमांडर नायकू का खात्मा अकेली वजह नहीं कि घाटी की टेरर इंडस्ट्री में सब पहले सा मान लिया जाए
- क्या हम ये उम्मीद कर रहे हैं कि भारत और पाकिस्तान के बीच सिर्फ कोरोना संकट के चलते स्थिति सुधर जानी चाहिए?
- पाकिस्तान ने 2009 से 2011 के बीच आंदोलन का नया तरीका ईजाद किया और हर बार गर्मियों में प्लानिंग कर पत्थरबाजी का कैम्पेन चलाया
नई दिल्ली. कश्मीर में हिजबुल कमांडर रियाज नायकू का खात्मा अकेली ऐसी वजह नहीं है जिससे ये मान लिया जाए कि घाटी की टेरर इंडस्ट्री में सबकुछ पहले जैसा ही है। दो दिन पहले हंदवाड़ा में हुए एनकाउंटर में हमने पांच वीरों को खोया है। कमांडिंग ऑफिसर और कंपनी कमांडर टीम का बहादुरी से नेतृत्व कर रहे थे। पूरे देश को इस पर गर्व था और उन्हें खोने का दुख भी। वहीं, एनकाउंटर को लेकर लोगों में गुस्सा भी था और उन्हें ये भरोसा भी नहीं हो रहा था कि जब पूरी दुनिया कोरोना से लड़ रही है तो पाकिस्तान आतंकवादियों को मदद दे रहा है। खासकर तब जब हमने पिछले महीने ही पांच पैरा सोल्जर्स खोया है, एक दूसरे एनकाउंटर में एलओसी पर घुसपैठियों से लड़ते हुए।
ये एनकाउंटर यही दिखाते हैं कि पाकिस्तान के लिए कुछ नहीं बदला है। और तो और पाकिस्तान भारत को अस्थिर करने के लिए अपने प्रयासों को फिर से जुटा रहा है, मजबूत कर रहा है, उन्हें नए तरीके से पेश भी कर रहा है। और आखिर क्यों न करे? वह अपने लक्ष्य से भटक नहीं रहा। आखिर उसका लक्ष्य ही है भारत को हजारों घाव देना।
क्या हम ये उम्मीद कर रहे हैं कि भारत और पाकिस्तान के बीच सिर्फ कोरोना संकट के चलते स्थिति सुधर जानी चाहिए? हां, एलओसी पर उड़ी और पुंछ में आरपार दोनों इलाके 2004 में साथ आए थे, जब वहां भयानक भूकंप आया था। लेकिन तब राजनीति का मौसम अच्छा था। मनमोहन और मुशर्रफ के बीच का सामंजस्य और नियंत्रण रेखा पर सीजफायर दोनों की स्थितियां ठीक थीं।
यहां तक की भूकंप के बाद साथ आने के प्रयास इस हद तक चले गए कि सीमा पार से व्यापार होने लगा और जम्मू-कश्मीर के नागरिक इस हिस्से से उस हिस्से जाने लगे। इसके उलट फिलहाल हम दोनों देश पॉलिटिकल और डिप्लोमैटिक लॉकडाउन के बीच हैं। और यह दुनियाभर में कोरोना के चलते लगे लॉकडाउन से काफी पहले की बात है।
हाल में जो हुआ उसने दिखा दिया है कि पाकिस्तान ने घुसपैठ की कोशिशें बढ़ा दी हैं। और एनकाउंटर से साबित होता है कि कश्मीर में द रेजिस्टेंट फ्रंट (टीआरएफ) नाम का एक नया आतंकी संगठन पैदा हुआ है। इसमें मौजूदा आतंकी तंजीमों जैसे हिजबुल मुजाहिद्दीन, जैश-ए-मोहम्मद, लश्कर-ए-तैयबा और अल बदर के लोग शामिल हैं। इस ग्रुप की मजबूत ऑनलाइन मौजूदगी है।
टीआरएफ आतंकवादी संगठनों की फंडिंग काटने के एफएटीएफ फाइनेंशियल एक्शन टास्क फोर्स के कूबूलनामे को धोखा देने के उद्देश्य को भी पूरा करता है। हालांकि, टीआरएफ को आतंकी संगठनों की लिस्ट में शामिल करवाने में महीनों या सालों लग जाएंगे। यानी एक तीर से कई निशाने की कहावत को पूरा करना है इस संगठन का बनना।
मुझे ऐसे कई चतुर तरीके याद आ रहे हैं। कैसे पाकिस्तान कश्मीर मसले को ताजा रखने के लिए नए टेक्टिक और स्ट्रैटेजी लेकर आता रहा है, पिछले दशक में या उससे भी। 2009 से 2011 के बीच आंदोलन का नया तरीका ईजाद किया और हर बार गर्मियों में प्लानिंग कर पत्थरबाजी का कैम्पेन चलाया। फिलिस्तीन की तर्ज पर जिस पर पूरी दुनिया का ध्यान गया। उन्हें महसूस हुआ कि हथियारों के बगैर लड़ाई को पश्चिमी दुनिया में ज्यादा तवज्जो दी जाती है और यह सोच निराधार भी नहीं थी।
2015 में उन्होंने पत्थरबाजी के साथ आतंकी घटनाओं का घालमेल किया और इसे ज्यादा असरदार बनाने के लिए इस्तेमाल भी किया। सुरक्षाबलों के लिए यह एक नई चुनौती बना कि इस धंधे में औरतों और बच्चों को भी शामिल किया गया।
90 के दशक में जब सुरक्षाबल किसी ऑपरेशन के लिए किसी इलाके में जाते थे तो लोग खुद को घरों में बंद कर लेते थे। जवानों के सामने भी नहीं पड़ते थे। अब वह पत्थरों के साथ उनपर हमला करने लगे। स्थितियां पूरी तरह बदल चुकी थीं।
एंटी इंफिल्ट्रेशन ग्रिड पिछले एक दशक में मजबूत साबित हुई है और घाटी के कई आतंकी का खात्मा भी। जो घाटी में रहे उन्हें ट्रेनिंग नहीं मिल पाई, क्योंकि वह पीओके जा नहीं सके। यही वजह थी कि वह एक कपट के साथ सामने आए। आतंक को मजबूत बनाने अब सोशल मीडिया का सहारा लिया जाने लगा।
पहले जब हम लड़कों को पाकिस्तानी झंडे लहराते भीड़ के बीच या प्रदर्शन में देखते थे तो उनके चेहरे नकाब में ढंके होते थे। बुरहान वानी ने उसे भी बदल दिया। वह और उसके दोस्त फेसबुक पर हथियार पकड़े फोटो डालते नजर आए और इसने सभी का ध्यान आकर्षित किया। मीडिया और सोशल मीडिया का चतुर इस्तेमाल उसे रॉबिन हुड इमेज देने के लिए किया गया।
सोशल मीडिया का इस्तेमाल ऑपरेशन के दौरान, उसके पहले या बाद में भीड़ को पत्थरबाजी के लिए उकसाने को भी जमकर हुआ। और आखिर में सोशल मीडिया कट्टरता फैलाने का पहला साधन बन गया। राज्य ने तकनीक के ज्ञानिकों का समय को ध्यान में रखते हुए अच्छा खासा इस्तेमाल किया।
2020 में कोरोना संकट ने दुनिया को ऑनलाइन मिलना, जुटना, खरीदना, बेचना, चिल्लाना, हंसना और रोना सिखाया। यही ये लोग भी कर रहे हैं ऑनलाइन जाकर। अब वह खुद को रेजिस्टेंट मूवमेंट बतौर पेश कर रहे हैं। विरोध और मानवाधिकार अब पश्चिमी दुनिया में और बेहतर जगह सुने जाते हैं। यही नहीं समय का ध्यान रखकर वह ऑनलाइन जा रहे हैं। आईएसआईएस एक और मॉडल है जो ऑनलाइन काबीलियत के इस्तेमाल को प्रोत्साहित करता है।
कुछ साल पहले की इंटेलिजेंस रिपोर्ट बता रही थी कि पाकिस्तान के सोचने की प्रक्रिया सिर्फ ‘डेथ बाय थाउजैंड कट्स’ की फिलॉसफी तक सीमित नहीं। वह अब बात भी हजारों विद्रोह से मौत देने की करता है। तो नतीजा जायज है, कि जो विद्रोह पैदा होगा सिर्फ जम्मू-कश्मीर तक सीमित नहीं रहेगा। इसीलिए अहम है कि हम कोई भी दरारें न छोड़ें। विरोध से निपटने का तरीका मजबूत हो। और उसमें सोशल मीडिया का इस्तेमाल भी अच्छे से किया जाए।
हमने देखा कि पाकिस्तान ने वक्त और संदर्भ के साथ खुद को पेश किया है। फिर चाहे वह भारत को अस्थिर करना और कश्मीर में छद्म युद्ध आतंक के रास्ते या फिर बाकी तरीकों से भेजना हो। वक्त है कि हम 370 खत्म होने के इस अवसर और राज्य के दो केंद्र प्रशासित प्रदेशों में बंटने का इस्तेमाल करें। अपने तरीके फिर ईजाद करें कश्मीर के भीतर। बड़ी और बदलावकारी सोच वक्त की जरूरत है।
रिटायर्ड ले. जनरल सतीश दुआ, कश्मीर के कोर कमांडर रह चुके हैं, इन्ही के कोर कमांडर रहते सेना ने बुरहान वानी का एनकाउंटर किया। जनरल दुआ ने ही सर्जिकल स्ट्राइक की प्लानिंग की और उसे एग्जीक्यूट करवाया था। वे चीफ ऑफ इंटीग्रेडेट डिफेंस स्टाफ के पद से रिटायर हुए हैं।