डेमोक्रेसी / कोरोना से जीत के बाद भी न भूलें लोकतंत्र को मिले जख्म

डेमोक्रेसी / कोरोना से जीत के बाद भी न भूलें लोकतंत्र को मिले जख्म



 




  • लोगों के अलावा इस वायरस ने जिस चीज को सर्वाधिक प्रभावित किया है वह हैं हमारे मूलभूत अधिकार



कोरोना वायरस जैसे अदृश्य दुश्मन से लड़ाई में अनेक देश पहली बार लोकतंत्र की गारंटी व व्यक्तिगत अधिकारों को निलंबित करने पर मजबूर हुए हैं। महान लोकतंत्रों को भी उन मूल्यों का अस्थायी तौर पर त्याग करना पड़ा है, जिन पर वे खड़े थे। वायरस के तेज संक्रमण की वजह से लोकतांत्रिक देशों को वे इमर्जेंसी उपाय अपनाने पड़े हैं, जो अब तक निरंकुश देशों के सिस्टम माने जाते थे यानी कर्फ्यू, लोगों के जमा होने पर प्रतिबंध और धार्मिक स्वतंत्रता पर रोक। बहुत तानाशाही वाले देशों मेें भी लोगों को सिर्फ घर के भीतर कैद रहने, काम पर न जाने और घूमने न देने के लिए मजबूर नहीं किया जाता था। स्टॉलिन का सोवियत संघ भी ऐसा नहीं था। लॉकडाउन सबसे पहले इटली में लागू हुआ और फिर अलग-अलग तीव्रता के साथ दुनिया के अन्य देशों में इसने वहां के लोकतांत्रिक ढांचे को घायल किया। द्वितीय विश्व युद्ध के समय नाजी बमबारी के दौरान भी ब्रिटिश नागरिकों को ऐसे घर में बंद रहने पर मजबूर नहीं किया गया था। कोविड-19 लोगों की सेहत के लिए तो खतरा बन ही रहा है, लेकिन यह दुनियाभर में नागरिक अधिकारों को भी कमजोर कर रहा है और लोगों के मूलभूत अधिकारों पर जबरदस्त प्रतिबंधों से लोकतंत्र को भी कमजोर कर रहा है।


जब चीन सरकार ने इस साल 23 जनवरी को करीब 1.1 करोड़ लोगों वाले वुहान शहर को बाकी दुनिया के लिए सील किया था तो दुनिया ने चौंकते हुए एशिया की ओर देखा था। लोगों को इस बात पर भरोसा नहीं था कि कोविड-19 यूरोप और उत्तरी अमेरिका के औद्योगिक राष्ट्रों को भी इतनी ही ताकत के साथ प्रभावित कर सकता है। प्रेक्षकों को आश्चर्य होता है, जब विरोधाभासी निरंकुश देशों को कोरोना वायरस जैसी महामारी के समय तेजी से कदम उठाने और इससे निपटने मंे लोकतांत्रिक देशों की तुलना में एक बढ़त हासिल होती है। महामारी के बाद के युग में कोविड-19 का मानवाधिकारों पर क्या असर होगा?
कोविड-19 की वजह से दुनिया के सभी प्रमुख शहर भुतहा कस्बों में बदल गए हैं। अपनी भीड़ के लिए पहचाने जाने वाले रोम, मिलान, पेरिस, लंदन, मेड्रिड व न्यूयॉर्क सूने पड़े हैं। लाइटों की जगह खालीपन और शांति ने ले ली है, चमक-दमक वाली भीड़ की जगह सेनाएं गश्त कर रही हैं। लोग वायरस से लड़ने के लिए अपनी स्वतंत्रता को अस्थायी तौर पर छोड़ रहे हैं। इस तरह की कड़ी व सीमित सीमाएं पहले कभी महसूस नहीं की गईं। एक महीने से भी अधिक समय से अधिकतर देशों ने लोगों की मुक्त आवाजाही और भीड़ जमा करने पर रोक लगाई हुई है और पचास से अधिक देशों ने इमर्जेंसी की घोषणा की हुई है। अावाजाही पर लगातार राेक और बाकी प्रतिबंधों के साथ ही लोगों से आदतों को बदलने की अपील ने जिंदगी को आकार दिया है। यह सच है कि वायरस का संक्रमण राेकना जरूरी था। लेकिन, यह महामारी दुनियाभर में कार्यकारी अधिकारों का विस्तार कर रही है, जिसका लोकतांत्रिक हिस्से पर गंभीर प्रभाव पड़ रहा है। इस गंभीर जन स्वास्थ्य इमर्जेंसी से निपटने के लिए निश्चित ही असामान्य उपायों की जरूरत है। लेकिन, कोरोना वायरस को मारने का मतलब यूरोप में लोकतंत्र और मूलभूत अधिकारों को मारना नहीं है। इसके कई दुष्परिणाम हैं। इससे लोकतांत्रिक प्रक्रियाएं व संस्थाएं भी प्रभावित हो रही हैं। संसद या तो चल नहीं रही है या बहुत ही सीमित काम हो रहा है। चुनाव टाले जाने के भी अनेक उदाहरण हैं। भीड़ के जमा होने के खतरे को देखते हुए एक स्तर तक की देरी जरूरी हो सकती है, लेकिन ऐसी देरी सिर्फ मौजूदा सरकारों के विवेक पर नहीं छोड़ी जा सकती। इसकी बजाय जल्द से जल्द ई-मेल या अन्य किसी सुरक्षित तरीके से चुनाव कराने की कोशिश की जानी चाहिए। बिना चुनाव के कैसा लोकतंत्र?
इस संकट से सरकार नई निगरानी तकनीक के इस्तेमाल मंे भी तेजी ला रही है। उदाहरण के लिए इस्राइल और दक्षिण कोरिया में संक्रमित लोगों पर स्मार्ट फोन के लोकेशन डेटा से नजर रखी जा रही है। इटली में वायरस से संक्रमित लोगों पर नजर रखने के लिए बहुत संभव है कि एक एप जारी कर दिया जाए। यूरोपियन यूनियन के सामने भी अभूतपूर्व संकट है। चाहे कोई भी सरकार हो, यह उसकी जिम्मेदारी है कि वह लोगों की जिंदगी की रक्षा करते हुए स्वतंत्रता के मूल सिद्धांतों को प्रभावित नहीं होने देगी। उम्मीद है कि जैसा सरकार ने कहा है, स्वतंत्रता पर ये प्रतिबंध अस्थायी होंगे। हालांकि ये चेताते भी हैं। क्योंकि जब भी सरकारें एक बार नए अधिकार हासिल कर लेती हैं तो वे हमें उन्हें वापस नहीं करती हैं। इसके अलावा ट्रैकिंग एप, चेहरा पहचानने वाले सॉफ्टवेयर और ड्रोन से सरकारों को अपने नागरिकों पर नजर रखने की असीमित शक्तियां हासिल हो सकती हैं। इन तकनीकों के आक्रामक इस्तेमाल पर इन्हें कब बंद करना है और इनका दुरुपयोग रोकने के स्पष्ट कानून होने चाहिए। उम्मीद है कि हम वायरस को हरा देंगे, लेकिन लोकतंत्र को मिले घाव को नहीं भूलना चाहिए।