ग़ज़ल मेरी वहशत मुकम्मल हो रही है

मेरी वहशत मुकम्मल हो रही है
ये सुनके दुनिया पागल हो रही है


भुला देना उसे वश में नहीं है
मगर कोशिश मुसलसल हो रही है


किसी की याद आई है अचानक
हमारी आंख जल- थल हो रही है


जो इंसा थे दरिंदे हो रहे हैं
जो बस्ती थी वो जंगल हो रही है


मजा  ये  है झुलसती धूप " मेघा "
हमारे सर का आँचल हो रही है।
Megha rathi