और कितनी निर्भयाएं कब तक नौंची जाएंगी?

और कितनी निर्भयाएं कब तक नौंची जाएंगी?
-ः ललित गर्ग:-
समूचा राष्ट्र रांची और हैदराबाद में हुए दो जघन्य, वीभत्स एवं दरिन्दगीपूर्ण सामूहिक बलात्कार कांड से न केवल अशांत है बल्कि कलंकित भी हुआ है। एक बार फिर नारी अस्मिता एवं अस्तित्व को नौंचने वाली इन घटनाओं ने हमें शर्मसार किया है। ये त्रासद घटनाएं बता रही हैं कि देश में लड़कियां अभी भी सुरक्षित नहीं हैं। ये क्रूर एवं अमानवीय घटनाएं महाभारतकालीन उस घटना का नया संस्करण है जिसमें राजसभा में द्रौपदी को बाल पकड़कर खींचते हुए अंधे सम्राट धृतराष्ट्र के समक्ष उसकी विद्वत मंडली के सामने निर्वस्त्र करने का प्रयास हुआ था। इन वीभत्स घटनाओं में मनुष्यता का ऐसा भद्दा एवं घिनौना स्वरूप सामने आया है जिसने न केवल इन दो प्रांतों बल्कि पूरे राष्ट्र को एक बार फिर झकझोर दिया है। एक बार फिर अनेक सवाल खड़े हुए हंै कि आखिर  कितनी बालिकाएं, कब तक ऐसे जुल्मों का शिकार होती रहेंगी। कब तक अपनी मजबूरी का फायदा उठाने देती रहेंगी। दिन-प्रतिदिन देश के चेहरे पर लगती यह कालिख को कौन पोछेगा? कौन रोकेगा ऐसे लोगों को जो इस तरह के जघन्य अपराध करते हैं, नारी को अपमानित करते हैं। इन सवालों के उत्तर हमने निर्भया के समय भी तलाशने की कोशिश की थी। लेकिन इस तलाश के बावजूद इन घटनाओं का बार-बार होना दुःखद है और एक गंभीर चुनौती भी है।
ताजा दोनों घटनाएं किसी दूर-दराज के इलाके की नहीं हैं बल्कि ये दो बडे़ प्रदेशों की राजधानी की हैं। रांची में एक छात्रा का अपहरण करके उसे ले जाया गया और उसके साथ सामूहिक बलात्कार हुआ। जबकि हैदराबाद में पशु चिकित्सक की स्कूटी का टायर पंक्चर हो जाने के बाद उसे घर तक पहुंचने के लिए मदद लेनी पड़ी और मदद मिलने की बजाय वह ऐसे लोगों के चंगुल में फंस गई, जिन्होंने न सिर्फ बलात्कार किया, बल्कि उसकी निर्मम हत्या करके जला दिया। दोनों ही घटनाएं सीधे तौर पर बताती हैं कि निर्भया कांड के बाद जो भी कदम उठाए गए, वे ऐसी घटनाओं को रोकने के लिए नाकाफी साबित हुए हैं।
हर बार की घटना सवाल तो खडे़ करती हंै, लेकिन बिना उत्तर के वे सवाल वहीं के वहीं खड़े रहते हैं। यह स्थिति हमारी कमजोरी के साथ-साथ राजनीतिक विसंगतियों को भी दर्शाती है। शासन-व्यवस्था जब अपना राष्ट्रीय दायित्व नैतिकतापूर्ण नहीं निभा सके, तब सृजनशील शक्तियों का योगदान अधिक मूल्यवान साबित होता है। आवश्यकता है वे अपने सम्पूर्ण दायित्व के साथ आगे आयें। अंधेरे को कोसने से बेहतर है, हम एक मोमबत्ती जलाएं। अन्यथा वक्त आने पर, वक्त सबको सीख दे देगा। वक्त सीख दे उससे पहले हमें जाग जाना होगा, हम नहीं जाग रहे हैं, हमारी मानसिकता में बदलाव नहीं हो रहा है, तभी बार-बार निर्भया जैसे कांड हमें झकझोर कर रह जाते हैं। प्रश्न है कि हम निर्भया के वक्त ही कुछ क्यों जागे थे, इसके बाद हुई ऐसी घटनाओं पर हमें क्यों मूक दर्शक बने रहे। यदि एक निर्भया के समय हमारी जागृति से कड़े कानून बनेे, निर्भया के बलात्कारियों को फांसी की सजा सुनाई गई और महिला सुरक्षा के मुद्दे पर बहुत कुछ किया गया, तो क्या वैसी ही जागृति कायम रहती तो महिलाओं के प्रति दरिंदगी की घटनाएं बार-बार नहीं होती। लेकिन हमारे सुषुप्तावस्था के कारण ही बलात्कार-व्यभिचार बढ़ रहे है बल्कि कड़े कानूनों की आड में निर्दोष लोगों को फंसाने का ध्ंाधा भी पनप रहा है। जिसमें असामाजिक तत्वों के साथ-साथ पुलिस भी नोट छाप रही है।
हमें उन आदतों, वृत्तियों, महत्वाकांक्षाओं, वासनाओं एवं कट्टरताओं को अलविदा कहना ही होगा जिनका हाथ पकड़कर हम उस ढ़लान में उतर गये जहां रफ्तार तेज  है और विवेक का नियंत्रण खोते चले जा रहे हैं जिसका परिणाम है नारी पर हो रहे नित-नये अपराध और अत्याचार। हमें जीने के प्रदूषित एवं विकृत हो चुके तौर-तरीके ही नहीं बदलने हैं बल्कि उन कारणों की जड़ों को भी उखाड़ फेंकना है जिनके कारण से बार-बार नारी को जहर के घूंट पीने को विवश होना पड़ता है। ऐसा वातावरण निर्भया-कांड के समय बना, तब सरकार एवं समाज के एक बडे़ तबके और सभी राजनीतिक दलों ने यह संकल्प लिया था कि अब कोई और निर्भया नहीं होगी। उस आंदोलन और उन संकल्पों से एकबारगी लगने लगा था कि अब देश की सूरत बदलेगी ही, देश में महिलाएं पहले से सुरक्षित होंगी। यह उस समय का आवेग था, जो सरकार पर कुछ करने का दबाव भी बना रहा था और हमें कई तरह के आश्वासन भी दे रहा था। निर्भया कांड के बाद जो बदलाव हुए, उसमें मुख्य था बलात्कार से जुडे़ कानूनों में बदलाव। उस समय जो आंदोलन चल रहा था, उसकी एक प्रमुख मांग थी कि बलात्कार के दोषियों को मृत्युदंड दिया जाए। हालांकि इसे लेकर कई मतभेद थे, लेकिन अंत में इसकी सिफारिश भी की गई। सोच यही थी कि अगर बलात्कारियों के बच निकलने के रास्ते बंद करने के साथ ही उनको दिया जाने वाला दंड बाकी समाज के लिए एक कठोर सबक का काम करेगा और यह अपराधी मानसिकता के लोगों को ऐसे अपराध करने से रोकेगा। लेकिन इसके बावजूद अगर ऐसी वारदात नहीं रुक रही हैं, तो यह सोचना जरूरी है कि इस दिशा में और क्या किया जाए? इस समस्या का केवल कानून में समाधान खोजना भी एक भ्रांति है, समस्या के समाधान की दिशा में आधा-अधूरा प्रयत्न है। जरूरत है जन-जन की मानसिकता को बदलने की। समाजशास्त्र मानता है कि अपराधी के बच निकलने के रास्ते बंद करना और कड़े दंड का प्रावधान किया जाना जरूरी हैं, पर ये अपराध के खत्म होने की गारंटी नहीं हो सकते। इनके साथ सबसे जरूरी है उन स्थितियों को खत्म करना, जो ऐसे अपराधों का कारण बनती हैं। बलात्कार जैसे अपराध कुंठित मानसिकता के लोग करते हैं, लेकिन ऐसी कुंठाएं कई बार महिलाओं के प्रति हमारी सामाजिक सोच से उपजती हैं। महिलाओं को सिर्फ कानूनों में ही नहीं, सामाजिक धारणा के स्तर पर बराबरी का दर्जा देकर और उनकी सार्वजनिक सक्रियता बढ़ाकर ही इस मानसिकता को खत्म किया जा सकता है। इससे हम ऐसा समाज भी तैयार करेंगे, जो कुंठित मानसिकता वालों को बहिष्कृत कर सकेगा। प्रश्न यह भी है कि आखिर हमारे देश में महिलाओं को लेकर पुरुषों में ही इतनी कुंठाएं क्यों है? इन कुंठाओं को समाप्त कैसे किया जाये, इस पर भी तटस्थ चिन्तन जरूरी है। रांची एवं हैदराबाद की ताजा त्रासद एवं अमानवीय घटनाएं हो या निर्भरा कांड, नितीश कटारा हत्याकांड, प्रियदर्शनी मट्टू बलात्कार व हत्याकांड, जेसिका लाल हत्याकांड, रुचिका मेहरोत्रा आत्महत्या कांड, आरुषि मर्डर मिस्ट्री की घटनाओं में पिछले कुछ सालों में इंडिया ने कुछ और ऐसे मौके दिए जब अहसास हुआ कि भू्रण में किस तरह नारी अस्तित्व बच भी जाए तो दुनिया के पास उसके साथ और भी बहुत कुछ है बुरा करने के लिए। बहशी एवं दरिन्दे लोग ही नारी को नहीं नोचते, समाज के तथाकथित ठेकेदार कहे जाने वाले लोग और पंचायतंे भी नारी की स्वतंत्रता एवं अस्मिता को कुचलने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ रही है, स्वतंत्र भारत में यह कैसा समाज बन रहा है, जिसमें महिलाओं की आजादी छीनने की कोशिशें और उससे जुड़ी हिंसक एवं त्रासदीपूर्ण घटनाओं ने एक बार फिर हम सबको शर्मसार किया है। यह वक्त इन स्थितियों पर आत्म-मंथन करने का है, उस अहं के शोधन करने का है जिसमें श्रेष्ठताओं को गुमनामी में धकेलकर अपना अस्तित्व स्थापित करना चाहता है।
समाज के किसी भी एक हिस्से में कहीं कुछ जीवन मूल्यों, सामाजिक परिवेश जीवन आदर्शों के विरुद्ध होता है तो हमें यह सोचकर चुप नहीं रहना चाहिए कि हमें क्या? गलत देखकर चुप रह जाना भी अपराध है। इसलिये बुराइयों से पलायन नहीं, उनका परिष्कार करना सीखें। चिनगारी को छोटी समझ कर दावानल की संभावना को नकार देने वाला जीवन कभी सुरक्षा नहीं पा सकता। बुराई कहीं भी हो, स्वयं में या समाज, परिवार अथवा देश में तत्काल हमें अंगुली निर्देश कर परिष्कार करना चाहिए। क्योंकि एक स्वस्थ समाज, स्वस्थ राष्ट्र स्वस्थ जीवन की पहचान बनता है। हमें इतिहास से सबक लेना चाहिए कि नारी के अपमान की एक घटना ने एक सम्पूर्ण महाभारत युद्ध की संरचना की और पूरे कौरव वंश का विनाश हुआ। रांची-हैदराबाद जैसी बालिकाओं की अस्मिता को लूटने और उन्हंे मौत के हवाले कर देने की घटनाएं कहीं सम्पूर्ण मानवता के विनाश का कारण न बन जाये।  प्रेषकः


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